वांछित मन्त्र चुनें

अ॒ग्निं सु॒म्नाय॑ दधिरे पु॒रो जना॒ वाज॑श्रवसमि॒ह वृ॒क्तब॑र्हिषः। य॒तस्रु॑चः सु॒रुचं॑ वि॒श्वदे॑व्यं रु॒द्रं य॒ज्ञानां॒ साध॑दिष्टिम॒पसा॑म्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

agniṁ sumnāya dadhire puro janā vājaśravasam iha vṛktabarhiṣaḥ | yatasrucaḥ surucaṁ viśvadevyaṁ rudraṁ yajñānāṁ sādhadiṣṭim apasām ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒ग्निम्। सु॒म्नाय॑। द॒धि॒रे॒। पु॒रः। जनाः॑। वाज॑ऽश्रवसम्। इ॒ह। वृ॒क्तऽब॑र्हिषः। य॒तऽस्रु॑चः। सु॒ऽरुच॑म्। वि॒श्वऽदे॑व्यम्। रु॒द्रम्। य॒ज्ञाना॑म्। साध॑त्ऽइष्टिम्। अ॒पसा॑म्॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:2» मन्त्र:5 | अष्टक:2» अध्याय:8» वर्ग:17» मन्त्र:5 | मण्डल:3» अनुवाक:1» मन्त्र:5


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (यतस्रुचः) जिन्होंने यज्ञ करने की स्रुचा ग्रहण किई और (वृक्तबर्हिषः) यज्ञ धूम से अन्तरिक्ष छेदन किया वे (जनाः) ऋत्विज् मनुष्य (इह) वर्तमान समय में (सुम्नाय) सुख के लिये (सुरुचम्) सुन्दर प्रकाशित (विश्वदेव्यम्) समस्त दिव्य पदार्थों में उत्पन्न हुए (रुद्रम्) किन्हीं को रुलानेवाले (यज्ञानाम्) यज्ञ कर्मों के (साधदिष्टिम्) हवन कर्म को जिससे सिद्ध करते वा अन्य (अपसाम्) कर्मों के बीच (वाजश्रवसम्) वेग और अन्न को सिद्ध करते उस (अग्निम्) अग्नि को (पुरः) प्रथम सब कर्मों से पहिले (दधिरे) धारण करते हैं वैसे हम लोगों को भी अनुष्ठान करना चाहिये ॥५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे ऋत्विग्जन यज्ञों में अग्नि से वायु और वर्षा के जल की शुद्धि आदि काम करते हैं, वैसे शिल्पि आदि जनों को भी पाचक अग्नि से कार्य सिद्ध करने चाहिये ॥५॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे मनुष्या यथा यतस्रुचो वृक्तबर्हिषो जना इह सुम्नाय सुरुचं विश्वदेव्यं रुद्रं यज्ञानां साधदिष्टिमपसां वाजश्रवसमग्निं पुरो दधिरे तथाऽस्माभिरप्यनुष्ठेयम् ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्निम्) पावकम् (सुम्नाय) सुखाय (दधिरे) दध्युः (पुरः) पुरस्तात् (जनाः) मनुष्याः (वाजश्रवसम्) वाजो वेगः श्रवोऽन्नं यस्मात्तम् (इह) अस्मिन् वर्त्तमाने समये (वृक्तबर्हिषः) वृक्तं छेदितं धूमेन बर्हिरन्तरिक्षं यैस्ते ऋत्विजः (यतस्रुचः) यता गृहीताः स्रुचो यैस्ते (सुरुचम्) सुष्ठुदीप्तिम् (विश्वदेव्यम्) विश्वेषु देवेषु दिव्यपदार्थेषु भवम् (रुद्रम्) रोदयितारम् (यज्ञानाम्) (साधदिष्टिम्) साध्नुवन्तीष्टिं येन तम् (अपसाम्) कर्मणाम् ॥५॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथर्त्विजो यज्ञेष्वग्निना वायुवृष्टिजलशोधनादीनि कर्माणि कुर्वन्ति तथा शिल्पिभिरपि पावकेन कार्य्याणि साधनीयानि ॥५॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे ऋत्विक यज्ञात अग्नीने वायू व पावसाच्या पाण्याची शुद्धी करतात, तसे कारागीर आदींनी अग्नीच्या मदतीने कार्य सिद्ध केले पाहिजे. ॥ ५ ॥